जिन्दगी की व्यस्तता, भोग विलास में,
जब थोडा सा ध्यान हटता है, बटता है,
तो सोंचती हूँ-
क्या इंसान ख़ुशी के सही मायने जान पाता है?
या ख़ुशी की खोज में, धर पकड़ में
खो के एक दिन इश्वर की बने इस दुनिया से
इश्वर की बनाई उस दुनिया
विलीन हो जाता है
सब कुछ - दुःख, सुख, ग़म, ख़ुशी
अमीरी, गरीबी सब कुछ
यहीं का यहीं धरा रह जाता है
और उस ख़ुशी की खोज
अधूरी रह जाती है
ठीक उन अधूरी बातों और कर्जों की तरह
जो इंसान के जीवन काल में
वो पुरे कर ही नहीं पाता
जब इंसान नग्न होता है, और भूखा
तो कपडे और खाना पाकर वो खुश हो जाता है
जब गरीबी की रेखा से आखिरकार उसका रिश्ता टूटता है,
तो मकान पाने तक जाता है ख़ुशी का दायरा
फिर गाडी, बंगला और वो सब कुछ जो
पैसा खरीद सकता है पा जाने में ही
पैसा खरीद सकता है पा जाने में ही
जब भुखमरी से बंगले और बुढापे का सफ़र तय हो जाता है,
तब भी इंसान सिर्फ मौत में ख़ुशी नहीं ढूंढ़ता
ढूंढ़ता है ख़ुशी इस बात में की
उसकी मौत अखबारों की सुर्खियों में छपे,
उसकी मय्यत में प्रधान मंत्री न सही
तो उसकी शोक सभा में मुख्य मंत्री तो आये
सच इंसान सब कुछ पा सकता है ख़ुशी नहीं ...
Monday, April 20, 2009
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1 comment:
सही कहा आपने,
इंसान ख़ुशी की तलाश में कस्तूरी मृग की तरह दर-दर भटकता फिरता है, और कभी समझ नहीं पाता की ख़ुशी तो उसके ही अन्दर बसी हुई है.
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